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शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

मनुष्य के शत्रु ...डा श्याम गुप्त ....

                                 

                              मनुष्य के शत्रु ...

यजुर्वेद, ईशोपनिषद एवं गीता में ईश्वर प्राप्ति के मूलतः तीन उपाय बताये गए हैं | जो तत्काल प्रभावी, सरल एवं कठिन मार्ग क्रमशः ...भक्ति योग, कर्म योग एवं ज्ञान योग हैं...| इनका पालक व्यक्ति स्थिरप्रज्ञ व संतुष्ट रहता है, स्वयं में स्थिर, आत्मलय, ईश्वरोन्मुख | ईशोपनिषद् का प्रथम मन्त्र इन तीनों का वर्णन करता हैं....


ईशावास्यं इदम सर्वं, यद्किंचित जगत्यां जगत ....भक्तियोग का ...विश्वास व आस्था का मार्ग है ...सब कुछ ईश्वर का, मेरा कुछ नहीं, सब समाज का है|

तेन त्यक्तेन भुन्जीता ....कर्मयोग का मार्ग....कर्म आवश्यक है परन्तु निस्वार्थ कर्म, परमार्थ एवं त्याग के भाव से कर्म व भोग |

मा गृध कस्यविद्धनम... ज्ञान का मार्ग ...विवेक का मार्ग.. अकाम्यता .. किसी के भी धन व स्वत्व की इच्छा व हनन नहीं करना चाहिए,... वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा..समस्त इच्छाओं का त्याग ...यह धन किसका हुआ है इसका ज्ञान |

तो इस में अवरोध क्या है ? उपरोक्त पर न चलने से एवं न चलने देने हेतु रजोगुण रूपी तीन भाव मन में उत्पन्न होकर विचरण करते हैं जो शत्रु रूप में मनुष्य को भटकाते हैं....काम, क्रोध व लोभ |

वस्तुतः मूल शत्रु काम ही है अर्थात कामनाएँ, इच्छाएं .. वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा ....शेष उसके प्रभावी
रूप हैं | काम अर्थात कामना, प्राप्ति की इच्छा से प्राप्ति का लोभ..विघ्न से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, मोह, मूढ़
भाव से स्मृतिभ्रम एवं मानवता नाश | काम नित्य बैरी कहा गया है यह दुर्जय है एवं इन्द्रियाँ मन व बुद्धि में
स्थित यह ज्ञान को आच्छादित कर देता है | इन्द्रियों से परे मन बुद्धि व आत्मा में स्थित होना चाहिए ...अतः ..

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान |

अत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितिप्रज्ञस्तदोच्ये |......गीता २/५५ 

जो सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है वह स्थितिप्रज्ञ है |

निराशीर्यत चित्तात्मा त्यक्त सर्वपरिग्रह|

शारीरं केवलं कर्म कुर्वप्राप्नोतिकिल्विषम |.....गी 4/21 

.....जो बिना इच्छा अपने आप प्राप्त कर्मों पदार्थों से संतुष्ट है उसके समस्त किल्विष समाप्त होजाते हैं|...एवं



यःशास्त्र विधि मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः |

न स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परा गतिम् |...गीता १६/२३ 

.....जो शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना इच्छा से आचरण करते हैं वह न सुख पाता है न सिद्धि न परमगति |
काम क्रोध लोभ ...तीनों को शत्रु नहीं अपितु नरक का द्वार कहा गया है ..इन्हें त्याग देना चाहिए ..

त्रिविधं नरकस्येदम द्वारं नाश्मनात्मन : |

कामः क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेत्रयं त्यजेत|....गीता १६/२१ ....तथा .....

दु;खे स्वनुदिग्नमन: सुखेषु विगतस्पृह |
वीत राग भय क्रोधो,स्थितिर्मुनिरुच्यते |...गीता २/५६

.....सुख –दुःख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता जिसके राग, भय ( जो इच्छित प्राप्ति होगी या नहीं का हृदयस्थ भाव होता है ), क्रोध समाप्त होगये हैं उसे मुनिगण स्थितप्रज्ञ कहते हैं | इसप्रकार.....अंत में ...

विहाय कामाय सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह: |
निर्ममो निरहंकारो स शान्तिमधिगच्छति ||...गीता १६/७१

जो सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होजाता है वही शान्ति प्राप्त करता है | वही स्थितप्रज्ञ है, आत्मलय है, ईश्वरन्लय है, मुक्त है |


रविवार, 23 जून 2013

मंगलवार, 20 नवंबर 2012

अनंत चतुर्दशी की पौराणिक कथा


अनंत चतुर्दशी की पौराणिक कथा

एक बार महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया। उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तो था ही, अद्भुत भी था वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल व थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी। जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी। बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे। 

एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया। द्रौपदी ने यह देखकर 'अंधों की संतान अंधी' कह कर उनका उपहास किया। इससे दुर्योधन चिढ़ गया।

यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी। उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली। उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे। उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया। 

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा- 'हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा।' 

इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई - 

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी। जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। 

पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए। 

कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं। सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई। 


कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत जी का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं। 

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- 'हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे। कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।'

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

गीता ज्ञान प्रसार का अभिनव कार्य


फ्री में चाहिए श्रीमद भागवत गीता तो करें एक एसएमएस

श्रीमदभागवतगीता, हिंदू धर्म का महान ग्रंथ। लेकिन कितने हिंदुओं ने पढ़ी है गीता। हो सकता है 50 फीसदी आबादी ने भी कभी नहीं पढ़ी हो। लेकिन अगर आप गीता पढ़ना चाहते हैं तो आप ये महान पुस्तक पा सकते हैं बिना कोई कीमत चुकाए सिर्फ आपको करना होगा एक एसएमएस। इस नंबर पर – 98730-52666 या 98733-57727 इन नंबरों पर एसएमएस में आप अपना पूरा पता भेजें। चंद रोज में आपको गीता की हार्ड बाउंड वाली ( सजिल्द ) प्रति कूरियर या डाक से आपके पते पर निःशुल्क मिल जाएगी।

दिल्ली के यमुना पार इलाके के दिलशाद गार्डन के एक सज्जन पिछले कई सालों से गीता के प्रसार का ये अनूठा अभियान चला रहे हैं। वे नहीं चाहते कि उनका नाम कहीं जाना जाए। फौज से अवकाश प्राप्त और अब अपना फोटोस्टेट का कारोबार चलाने वाले इस श्रद्धालु ने गीता के प्रसार को अपने जीवन का मकसद बना लिया है। अब तक वे देश के अलग अलग राज्यों में कई हजार लोगों को गीता की प्रति भेज चुके हैं। गांवों में जहां कूरियर की सुविधा नहीं है वहां डाक से भेजी जाती है गीता।
एसएमएस करने वालों को गीता की जो प्रति भेजी जाती है उसका हिंदी भाष्य महान संत श्री स्वामी सत्यानंद जी महाराज ने लिखा है। वैसे तो गीता की भाषा-टीका सैकड़ों संतों ने समय समय पर लिखी है लेकिन सत्यानंद जी महाराज अत्यंत सरल हिंदी में गीता प्रस्तुत की है जो कम पढ़े लिखे लोगों को भी आसानी से समझ में आ जाती है। गीता अभियान चलाने वाले ये श्रद्धालु बताते हैं कि वे गीता पढ़कर नास्तिक से आस्तिक हुए। आज से 5000 साल पहले भगवान कृष्ण ने अर्जुन को जो परम ज्ञान दिया वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। गीता अद्भुत आध्यात्मिक ज्ञान वाली पुस्तक है जो लोगों में निराशा का भाव खत्म कर आशा का भाव जगाती है। अगर हमारी ओर से भेजी गीता को पढ़कर किसी के जीवन में सार्थक बदलाव आता है तो यही सच्ची मानवता की सेवा है

गुरुवार, 20 सितंबर 2012